Thursday, June 4, 2009

faraz ki shayyiri

दिल गिरफ्ता ही सही बज्म सजा ली जाये
याद-ए-जानाँ से कोई शाम ना खाली जाये
रफ्ता रफ्ता यही ज़िन्दाँ में बदल जाते हैं
अब कीसी शहर कि बुनियाद ना डाली जाये
मशफ-ए-रुख है कीसी का के बयाज़-ए-हाफिज़
ऐसे चेहरे से तो बस फ़ाल निकाली जाये
वो मुरव्वत से मिला है तो झुका दूँ गर्दन
मेरे दुश्मन का कोई वार ना खाली जाये
बे-नवा शहर का है के मेरे दिल पे 'फ़रज़'
किस तरह से मेरी आशुफ्ता ख़याल जाये

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