न शौक़-ऐ-वस्ल न रंज-ऐ-फिराक रखते हैं
मगर ये लोग तेरा इश्तियाक रखते हैं
ये हम जो तुझपे हैं नाजां तोह इस सबब से के हम
ज़माने वालों से बेहतर मजाक रखते हैं
हम एहल-ए-दिल से कोई क्यूँ मिले के हम से फकीर
ने इतर-ओ-उद न साज़-ओ-याराक रखते हैं
जमाल-ए-यार फ़क़त चस्म-ओ-लब की बात नहीं
सो हम ख्याल-ए-सयक-ओ-सबक रखते हैं
मिसाल-ए-शीशा-ए-खाली किताब-ए-अक्ल को भी
हम एहल-ए-मैकदा बाला-ए-ताक रखते हैं
शयूख-ए-शहर से क्या बहस के जो गिरह में फ़क़त
दो हर्फ़-ए-एक़्द-ओ-सह हर्फ़-ए-तलाक रखते हैं
'फ़रज़' खुश हो के तुझेसे ख़फा हैं फतवा फरोश
भले से ये भी कहाँ इत्तेफाक रखते हैं
No comments:
Post a Comment