न मुझको गम है जीने का ये जान निकले तो क्या होता
वो हर इक मोड़ पे क्या देखें मेरा माजी जहाँ होता
हुयी इक उमर सेहरा में इस अक्स-ऐ-हस्ती को
खुदा या इतनी मन्नत है बस अपनी इक मकान होता
गिला मुझको नही काफिर ये अपनी हाल-ए-किस्मत का
ये जीना ही कजा मेरी जो मौत आती तो क्या होता
फलक पर जौफ के साए ज़मीं ये अश्क की मेहमान
मजार-ए-इश्क ये दुनिया में अपना इक निशाँ होता
चले जायेंगे इक दिन हम तेरी इस बज्म-ए-यारां से
न दिल को कुछ ख़बर होती न तुझको ये गुमान होता
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