Tuesday, June 2, 2009

insha allah khan ki shayyiri

कल चौदहवीं की रात थी शब् भर रहा चर्चा तेरा
कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तेरा
हम भी वहीं मौजूद थे हमसे भी सब पूछा किए
हम हँस दिए हम चुप रहे मंजूर था परदा तेरा
इस शहर में किस से मिलें हमसे तो छूटी महफिलें
हर शख्स तेरा नाम ले हर शख्स दीवाना तेरा
कूचे को तेरे छोड़ कर जोगी ही बन जाएँ मगर
जंगल तेरे परबत तेरे बस्ती तेरी सेहरा तेरा
हम और रस्म-ए-बंदगी आशुफ़्तगी उफ्तादगी
एहसान है क्या क्या तेरा ऐ हुस्न-ए-बेपरवाह तेरा
दो अश्क जाने किस लिए पलकों पे आ कर टिक गए
अल्ताफ की बारिश तेरी इकराम का दरिया तेरा
ऐ बेदरेग-ओ-बे_अमां हमने कभी की है फुगाँ[complaint]
हमको तेरी वेह्शत सही हमको सही सौदा तेरा
हम पर ये सख्ती की नज़र हम हैं फकीर-ए-राहगुज़र
रास्ता कभी रोका तेरा दमन कभी थमा तेरा
हाँ हाँ तेरी सूरत हसीन लेकिन तू ऐसा भी नहीं
इस शख्स के अशआर से शोहारा हुआ क्या क्या तेरा
बेशक उसकी का दोष है कहता नहीं खामोश है
तू अब कर ऐसी दावा बीमार हो अच्छा तेरा
बेदर्द सुनी है तो चल कहता है क्या अच्छी ग़ज़ल
आशिक तेरा रुसवा तेरा शायर तेरा 'इंशा' तेरा

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