Monday, June 1, 2009

qateel shifai ki shayyiri

गुज़रे दिनों की याद बरसती घटा लगे
गुजरो जो उस गली से तो ठंडी हवा लगे
मेहमान बन के आये किसी रोज़ अगर वो शख्स
उस रोज़ बिन सजाये मेरा घर सजा लगे
मैं इस लिए मानता नही वस्ल की खुशी
मेरे रकीब की मुझे बद_दुआ लगे
वो कहत दोस्ती का पड़ा है इन् दिनों
जो मुसकुरा के बात करे आशना लगे
तर्क--वफ़ा के बाद ये उसकी अदा 'क़तील'
मुझको सताये कोई तो उसको बुरा लगे

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