Tuesday, June 2, 2009

s.malik gumnaam ki shayyiri

नज़र से नज़र को सलाम आ रहे हैं
फिर उनकी तरफ़ से पयाम आ रहे हैं
जो परदा_नाशी थे बोहत मुद्दतों से
वोह लम्हे मुझे बज्म-ए-आम आ रहे हैं
सजाने को अब मेरे ख्वाबों की बस्ती
ये फूलों के गजरे तमाम आ रहे हैं
ज़रा तो करो सब्र ऐ मय-कशो तुम
तुम्हारी ही जानिब ये जाम आ रहे हैं
कहाँ खो गए आप 'गुमनाम' हो कर
तुम्हे ढूँढने सुबह-ओ-शाम आ रहे हैं

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