Saturday, June 6, 2009

unknown

आया था घर संवारने एहसान कर गया
बरबादियों का और भी सामान कर गया
अब तक रही उसकी याद मेरी जिंदगी के साथ
दो चार पल की मुझसे जो पहचान कर गया
आंखों ने जिस के शौंक में रातें सजायी थीं
ख्वाबों के अंजुमन वही वीरान कर गया
झोंका नसीम-ए-सुबह का आया तो था मगर
गुलशन की हर कली को परेशां कर गया

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