Saturday, June 6, 2009

unknown

ग़म-ए-जिंदगी तेरा सुक्रिया, तेरे फैज़ ही से ये हाल है
वही सुबह-ओ-शाम की उलझाने वही रात दिन का वबाल है
न चमन में बू-ए-सनम रही, ना ही रंग लाला-ओ-गुल रहा
तू ख़फा ख़फा सा है वाकई के ये सिर्फ़ मेरा ख्याल है
इससे कैसे ज़ीस्त कहे कोई गाहे आह-दिल गाहे चश्म--नम
वही रात दिन की मुसीबतें वही मह है वही साल है
मैं ग़मों से हूँ जो यूँ मुत्मीन तो बुरा मानिए तो मैं कहूँ
तेरे हुस्न का नही फैज़ कुछ मेरी आशकी का कमाल है
है ये आग कैसी लगी हुई मेरे दिल को आज हुआ है क्या
जो है ग़म तो है गम-ए-आरजू अगर है तो फ़िक्र-ए-विसाल है
कोई काश मुझको बता सके राह--रस्म इश्क की उलझाने
वो कहे तो बात पते की है मैं कहूँ तो खाम ख्याल है
ये बता के क्या है तुझे हुआ, पाए इश्क सरवर ग़मज़दा
न वो मस्तियाँ न वो शोखियाँ न वो हाल है न वो कआल है

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