दस्तूर इबादत का दुनिया से निराला हो
इक हाथ में माला हो इक हाथ में प्याला हो
पूजेंगे सलीके से अंदाज़ मगर अपना हो
याद-ए-खुदा दिल में साकी ने संभाला हो
मस्ती भी ताक़द्दुस भी एक साथ चले दोनों
इक सिमत हो मैखाना इक सिमत शिवाला हो
मस्जिद की तरफ़ से तू जाना न कभी साकी
जाहिद भी कभी तेरा न चाहनेवाला हो
वो डूब के मर जाएँ न मदिरा की सुराही में
माशूक ने गर दिल की महफिल से निकला हो
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