Friday, June 5, 2009

wali aasi ki shayyiri

हम जो दिन रात ये 'इतर[perfume]-ऐ-दिल-ओ-जान खींचते हैं
नफा कम करते हैं ऐ यार ज़ियाँ[loss] खींचते हैं
सोचने के लिए मौजू[topic]-ए-सुखन[poetry] कोई नहीं !
सुब्ह से शाम तलक सिर्फ़ धुंआ खींचते हैं
मैंने मुद्दत से कोई सच भी नहीं बोला है
फिर मुझे दार[gallows] पे क्यूँ अहल-ए-जहाँ[inhabitant of world] खींचते हैं
अब भी रहते हैं बोहत ऐसे बहादुर जो यहाँ
दूध पीते हुए बच्चों पे कमाँ खींचते हैं
वो मुसाहिब[companion] जो जुबां खोलते डरते थे कभी
अब वाही मेरे बुजुर्गों की जुबां खींचते हैं
मेरे कातिल मुझे पहचान गए हैं शायद
वरना क्यूँ जिस्म से यूँ नोक-ए-सनाँ[sword's tip] खींचते हैं

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wel come