मेरी अकल-ओ-होश की सब हालतें
तुमने साँचें में जूनून के ढाल दीं
कर लिया था मैंने अहद-इ-इश्क
तुमने फीर बाहें गले में दाल दीं
यूँ तो अपने कासिदान-इ-दिल के पास
जाने किस् किस के लिए पैगाम हैं
पर लिखे हैं मैंने जो औरों के नाम
मेरे वो ख़त भी तुम्हारे नाम हैं
है मुहबत, हयात की लज्ज़त
वर्ना कुछ लज्ज़त-ए-हय्यत नहीं
कया इजाज़त है, एक बात कहूं
वो,,,,,मगर,,,,खैर, कोई बात नहीं
शर्म ! दहशत ! झिझक ! परेशानी !
नाज़ से काम क्यूँ नहीं लेतीं !
आप! वो! जी! मगर!,,,,,,ये सब कया है
तुम मेरा नाम क्यूँ नहीं लेती !
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