Saturday, May 30, 2009

unknown

अपनी तन्हाई मेरे नाम पे आबाद करे
कौन होगा जो मुझे उसकी तरह याद करे
दिल अजब शहर के जिस पर भी खुला दर इसका
वोह मुसाफिर इससे हर सिम्त से बर्बाद करे
अपने कातिल की ज़हानत से परेशां हूँ मैं
रोज़ एक मौत नए तर्ज़ से इजाद करे
सलब-ऐ-बनाई के एह्काम मिले हैं जो कभी
रौशनी चूने की ख्वाहिश कोई शब्-जाद करे
सोच रखना भी जराइम में है शामिल अब तोह
वही मासूम है हर बात पे जो साद करे
जब लहू बोल पड़े इसके गवाहों के खिलाफ
काजी-ए-शहर कुछ इस बाब में इरशाद करे
उसकी मुठी में बोहोत रोज़ रहा मेरा वजूद
मेरे साहिर से कहो अब मुझे आज़ाद करे

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