झलकते है उन् आँखों में मैखाने कई बार
छलकते है उन् आँखों से पैमाने कई हज़ार
पनपते है उन् आँखों में आशिक बेकरार
खिलते है उन्हे देख कर ये गुलशन ये गुल-ए-गुलज़ार
दरस को उन् आँखों के तरस जाती हूँ में
करती रहती हूँ हर दम बस उन् आँखों का इंतज़ार
अब तो न सोच बाकि है न समझ बाकी है मुझ में
कर जो नही सकती में उन् आँखों का इख्तियार
होठों पर सजते रहते है अक्सर कुछ तन्हा तन्हा नग्मे
उन् आँखों के बिना अब आता है न चैन और न ही करार
आवाम में जाया करती हूँ में सूने से ये लम्हे
उन् आँखों के बिना निंदिया भी आने से करती है इनकार
कभी मेरी ख़बर न मिले तो कहना उन्को, वो पढ़ ले ज़रा अखबार
वो जो न मिले तो निकला होगा कहीं मेरी मौत का भी इश्तिहार
No comments:
Post a Comment