कुछ भी अयाँ-निहाँ[सामने-गुप्त] ना था, कोई ज़मां मकान ना था
देर थी इक निगाह की फिर ये जहाँ ना था
साज़ वो कतरे-कतरे में सोज़ वो ज़र्रे ज़र्रे में
याद तेरी किसे ना थी दर्द तेरा कहाँ ना था
इश्क की अज्मायिशें और फिजाओं में हुई
पाँव तले ज़मीन ना थी सर पे ये आसमां ना था
सोज़-ए-निहाँ में वो करार कल्बे-तपाँ में वो सफा[पवित्र]
शोला तो था तड़प ना थी आग तो थी धुँआ ना था
इश्क हरीमे-हुस्न में अपने सहारे रह गया
सब्र का भी पता ना था होश का भी निशां ना था
किसके हवास से बजा कौन था अपने होश में
वक़्ते-बयाने-ग़म कोई मयाल-ए-दास्तान ना था
देख फजा-ए-दहर को कैफ-ए-अदम से भर दिया
ऐ दिल-ए-दर्द_आशना मिट ke भी मैं कहाँ ना था
जलवा-ए-ताबज्मा खयाले-इश्क हो गया
थी ना सदा-ए-अल्हज़र[दर की पुकार] नारा-ए-अलमान ना था
एक को एक की खबर मंजिल-ए-इश्क में ना थी
कोई भी अहले-कारवां शामिल-कारवां ना था
गफ़्लते-हुस्न जाग उठी और ज़बाने-इश्क पर
आह ना थी फुगाँ ना था नारा-ए-अलामत ना था
खिल्वातें-राज़ से हाले-विसाले-यार पूछ
हुस्न भी बेनकाब था इश्क भी दरमियाँ ना था
अब ना वो पुरसिशे-करम अब बा वो चश्म-आशना
शिकवा-ए-इश्क बर्तारफ तुमसे तो ये गुमां ना था
शिकवा-ए-दरगुज़र_नुमा क्यूँ है की हुस्न-इश्क से
इतना तो बदगुमान ना था इतना तो सरगराँ ना था
तेरी ख़ुशी की याद राखी तेरी कुशी की भूल जा
तुझसे ज़रा भी बदगुमान आलमे-रफतगाँ ना था
सब्र -ओ-सकून के राज़ कुछ बातों में खुल गये मगर
इश्क को भी ख़ुशी ना थी हुस्न भी शादमां ना था
फिर भी सकूने-इश्क पर आँख भर आई बारहा
गो गमे-हिज़र भी 'फिराक' कुछ गमे-जाविनदाँ ना था
No comments:
Post a Comment