के हट जाऊं मैं अपने दरमियाँ से
यहाँ जो है तानाफुस ही में कम है
परिंदे उड़ रहे हैं शाख-ए-जाँ से
दरीचा बाज़ है यादों का और मैं
हवा सुनता हूँ पेड़ों की ज़बान से
था अब तक मारका बाहर का दरपेश
अभी तो घर भी जाना है यहाँ से
फलां से बेहतर थी ग़ज़ल फलां की
फलां के ज़ख्म अच्छे थे फलां से
ख़बर क्या दूँ मैं शहर-ए-रफ्तुगान की
कोई लौटे भी शहर-ए-रफ्तुगान से
यही अंजाम क्या तुझको हवास था
कोई पूछे तो मीर-ए-दास्ताँ से
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