Thursday, June 4, 2009

unknown

अपना ही घर किस कदर …वीरान लगता है
हर शख्स यहाँ हर पल ..परेशां लगता है

दुखों के आजाने से नही होती अब हैरत
खुश्यों की आहट पे हर कोई हैरान लगता है

न पूछ क्या आलम-ए-बेसर-ओ-सामानी है हर तरफ़
मकीं ही मकान में ठहरा हुआ ..मेहमान लगता है

न चिडियों की चहचाहाहट…न कलियों की है महकार
गुलशन है के उजड़ा हुआ …बियाबान लगता है

जो दिल में बस रहे थे ..वोह इकदार खो गए
आशना भी रस्म-ए-आशनाई से अनजान लगता है

ख़ुद-गरजी का लिबादा ही हर एक तन पे है सजा
और इंसानियत से न_वाकिफ..इंसान लगता है

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