Tuesday, June 2, 2009

unknown

वोह खलूस था के खुमार था
वोह जूनून था के सराब था
मुझे सोचने में ज़माना लगा
मुझे मंजिलों ने भुला दिया
मुझे जिस मसीहा पे मान था
मुझे उसी ने सूली चढा दिया

कई हमसफ़र कई राहगुज़र
मुझे रस्ते में मिले मगर
मेरी तिशनगी कुछ और है
मेरी जुस्तजू कोई और है

वोह जो रौशनी की तरह बढे
मगर आंसुओं में समां सके

जो सुबह की पहली किरण बने
मेरे दिल का आँगन निखार दे
जो मुहब्बतों की रवायतें
लहू की बली से संवार दे
मुझे उस वफ़ा की तलाश है

मगर इस्द जहाँ-ए-ख़राब में
यहाँ ख्वाहिशों के सराब में
मुझ्र कौन दे ऐसी वफ़ा
में कहाँ से लाऊं वोह वफ़ा
इन्ही उलझनों में घिरी हुई हूँ
येही सोचती मैं चली गई

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