हर इक सितम पे फ़क़त माईल-ए-दुआ होना
लिखा गया है अब इस शहर का फ़ना होना
खड़े हैं अब तो वजूद-ओ-अदम की सरहद पर
बस इक लग्जिश-ए-पा पर है फ़ैसला होना
जो आदमी भी मुकम्मल न बन सके थे अभी
उन्हें भी अब तो मय्यसर हुआ खुदा होना
तमाम शहर की ऑंखें हैं इंतजार-ज़दा
इन्ही दिनों में है फिर कोई हादसा होना
किसी मुंडेर पे नज़रें, न चिलमनों पे निगाह
के दिल ही भूल गया अब तो मुब्तला होना
कभी अना की फ़सीलें, कभी ज़मीर का तौक़
ये उमर-ऐ-क़ैद है इस से कहाँ रिहा होना
हज़ार साँस की डोरी उलझ ही जाए 'जान'
कभी न अपनी तमन्ना की इन्तहा होना
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