Monday, June 1, 2009

unknown

हर इक सितम पे फ़क़त माईल-ए-दुआ होना
लिखा गया है अब इस शहर का फ़ना होना
खड़े हैं अब तो वजूद-ओ-अदम की सरहद पर
बस इक लग्जिश-ए-पा पर है फ़ैसला होना
जो आदमी भी मुकम्मल बन सके थे अभी
उन्हें भी अब तो मय्यसर हुआ खुदा होना
तमाम शहर की ऑंखें हैं इंतजार-ज़दा
इन्ही दिनों में है फिर कोई हादसा होना
किसी मुंडेर पे नज़रें, चिलमनों पे निगाह
के दिल ही भूल गया अब तो मुब्तला होना
कभी अना की फ़सीलें, कभी ज़मीर का तौक़
ये उमर-ऐ-क़ैद है इस से कहाँ रिहा होना
हज़ार साँस की डोरी उलझ ही जाए 'जान'
कभी अपनी तमन्ना की इन्तहा होना

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