Monday, June 1, 2009

unknown

मेरे लिए तेरी नज़रों की रौशनी है बुहत
के देख लूँ तुझे पल भर,मुझे यही है बुहत
ये और बात के चाहत के ज़ख्म गहरे हैं
तुझे भुलाने की कोशिश तो वरना की है बुहत
कुछ इस खता की सज़ा भी तो कम नही मिलती
ग़रीब-ए-शहर को इक जुर्म-एआगाही है बुहत
कहाँ से लाऊँ वो चेहरा, वो गुफ्तुगू, वो अदा
हज़ार हुस्न है गलियों में,आदमी है बुहत
कभी तो मुहलत-ए-नज़ारा, निक'हत गुजरां
लबों पे आग सुलगती है, तिशनगी है बुहत
किसी ने हँस के जो देखा तो हो गए उस का
के इस ज़माने में इतनी सी बात भी है बुहत

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